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आस्था – हालड़ा उत्सव के बाद गाहर घाटी की निभाई जाने वाली परंपरा

आस्था – हालड़ा उत्सव के बाद गाहर घाटी की निभाई जाने वाली परंपरा

लाहुल स्पीति (खबर आई संवाद सूत्र )

हावड़ा उत्सव के बाद गाहर घाटी की निभाई जाने वाली परंपरा

लाहुल स्पीति के गाहर घाटी में पुरानी परम्परा का निर्वहन करते हुए, इस संदर्भ में शशुर गोंपा के लामा नवांग उपासक ने “खबर आई” से अपने संवाद सांझा करते हुए कहां कि हालडा के बाद शरना ( मवेशी गृह/ दोगली )गुंगशेल जाना हुआ। अतीत से यह परम्परा रही कि हमारे सभी माल- मवेशी, भेड़ बकरी, गाय व चुरू वेल को यहीं पर रखकर एक आदमी रोज़ उनकी सेवा के लिए वहां जाकर शाम को वापस घर आते थे, जो आज बहुत कम लोग यह परम्परा निभा रहे हैं। खास कर हालडा त्योहार के अगले दिन शरना जाने वाला ब्यक्ति सर्वप्रथम गांव से बाहर निकल कर एक निश्चित स्थान पर देवदार के एक टहनी को वहां स्थापित कर उस पर फूल चढ़ाता है व उसके पश्चात घर से लाए मर-मर ज़द ( जौ व‌ शुर मिश्रित)से युल-ल्ह (ईष्ट देवता की स्तुति करता है, इस दोहरान वह विभिन्न प्रकार की वरदान/ मुरादें मांगता है। उसके बाद काफ़ी आगे जाकर दांग , घासनी ( शिवे-दांग ) की तरह पहुंच कर वहां फिर शुरू व पुष्प गाढ़कर ब्रा- लग तेते को काबू का पिण्ड बना कर उसकी स्तुति की जाती है। तत्पश्चात गंगदंग पहुंच कर सामने ला-बुर तेते ( बिलिंग के पहाड़ में विराजमान) दिखाई देती है, उनके नाम पर भी द अपने सामने दांग पर ही शुरू व पुष्प गाढ़कर उनके नाम मर मर- ज़द से पूजा की जाती है। जन श्रुति के अनुसार ला- बुर तेते एक गद्दी समुदाय का ब्यक्ति था जो अपनी भेड़ बकरी चराने के दोहरान बिलिंग नाले के शिखर पर गिर गया था उनकी आत्मा भटक गई थी, जिसकारण बिलिंग नाले, गुंगशेल आदि स्थानों पर उनका ‌काफी प्रकोप होने लगा तो‌ लोगों ने उनकी पूजा करना आरम्भ कर दिया खासकर खेत खलिहान के दोहरान हम‌ जब भी भोजन आदि करते हैं तो सर्व प्रथम उनका ही नाम लेकर उन्हें चढ़ाने की परम्परा आज भी प्रचलित है। वैसे ही ब्रा- लग तेते का इतिहास भी जन- श्रुति के अनुसार गांव केलंग का एक बुज़ुर्ग ब्यक्ति थाच ( जहां गर्मियों के दिनों माल मवेशियों के चराने की जगह ) से आते-जाते हुए ब्रा-लग लुंग-पा(नाला ) में गिरकर मौत हो गई, उनकी आत्मा भी भटक गई, जिसका दोष स्थानीय लोगों को भुगतना पड़ा। तब उन्होंने भी ला-बुर तेते की तरह ब्रा- लग तेते की भी पूजा करना शुरू कर दिया। आज सुबह मैं स्वयं इन तीनों का पूजा- स्तुति करने शरना की तरफ गया । यह हमारी संस्कृति का‌ अभिन्न अंग है ,इसे बरकरार रखना चाहिए। जय हो युल-ल्ह ख्येन !

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